तेरा तुझको अर्पण
“तेरा तुझको अर्पण क्या लागे है मेरा” कई बार अच्छी-बुरी परिस्थिति में यह पंक्ति काम आती है। गंगा मैया को धन्यवाद स्वरूप – ओ गंगा मैया तुझे पिवरी चढ़ाऊं मैं, अपने इष्ट को. कामकाज में तरक्की की अभिव्यक्ति स्वरूप, और सबक सिखाने के लिए भी।
लेकिन तेरा तुझको अर्पण में यहां बात दंभ और धीरज की, मानव के दंभ की और प्रकृति के धीरज की। कभी सोचा है? धरती की सीने में कितने खंजर रोज घोंपते हैं हम, नदियों की आंचल को मैला रोज करते हैं हम, सागर की सीनों पर कचरों के सांप लोटने देते हैं हम, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पशु -पक्षी, हवा- पानी, धरती, आकाश को रोज खून के आंसू रूलाते हैं हम, हर रोज, हर पल, हर क्षण। पेशानी पर हाथ रखकर सोचिए मत क्या मैं भी?
हां हम सब धरती, पानी, वायु, आग, हवा सबके अपराधी हैं, फिर भी प्रकृति हमें माफ करती है। लेकिन हम हैं कि मानते ही नहीं। अपने अहंकार से अंधे होकर विकास और तरक्की की राह के सबसे आवश्यक पहलू ‘प्रकृति की सुरक्षा’ के मानकों को नज़र-अंदाज़ करते हुए विकास की अट्टालिकाओं पर ताल ठोक ठोक कर इतराते हैं, मुस्कुराते हैं। एक तिनका है मानव! एक इशारे पर सारी सृष्टि पाताल में समा जाए वह दम रखती है प्रकृति। जिसका प्रत्यक्ष दर्शन है यह-
इंसानों का पिंजरे में कैद हो जाना, पहाड़ों का धरती में समा जाना, नदियों का घरों में घुस जाना, सैलाबों का विकास को लील जाना, आसमान से आग के गोलों का बरसना, हिमखंडों का पिघलना, असमय बारिशों का होना, रेगिस्तानों का हरा होना, हरे-भरे पहाड़ों का सूख जाना, गर्मी में बर्फ की बारिश का होना, सूखे से धरती का फट जाना। अवशिष्टों का गलत निष्पादन ज़हर बन कर धरती, पहाड़, झरने, नदियों से होकर हमारे ही खेतों में, बागानों में, हमारे ही पानी में, हमारी ही हवा में, हमारे ही जीव-जंतुओं में, हमारे पेड़-पौधों में, हमारे पशु-पक्षियों में समा कर, हमारे ही घर द्वार तक पहुंचना अर्पण है, खुद से खुद पर।
इंसान को पिंजरे में कैद करना बखूबी जानती है प्रकृति। है न? अब दूर कीजिए अपने माथे की सिलवटों को। मानव के दंभ पर प्रकृति यूं मुस्कुरा रही है, मानों कह रही हो,
“और सिखाऊं या सम्हल जाएगा?”